तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,
पढ़ रहा हूँ रेत पर,
मिटते मिटाते लेख, जो बाँचे समय ने।
काल ने देखे हज़ारों युद्ध यूँ तो रक्तरंजित।
जंग ऐसी भी छिड़ी जिसमें हुआ यह विश्व खंडित।।
वैश्विक था युद्ध पहला, उम्र बावन माह की थी।
लड़ रहा था विश्व सारा, ऋतु भयानक दाह की थी।।
दूसरा भी युद्ध वैश्विक था, भयानक वो समर था।
कौन था दुनिया में जो इसके असर से बेअसर था।।
दो शहर जापान के बलि चढ़ गये परमाणु बम की।
मौत नाची झूम के, टूटी हदें मानव सितम की।।
क्रूर हिटलर ने समय को भी हिला कर रख दिया था।
यातनाओं के शिविर में मृत्यु का तांडव किया था।।
छह बरस तक था चला वह खून का किस्सा निरंतर।
विश्व का नक्शा हुआ बदरंग, हारा प्राण का स्वर।।
कोई हो जीता भले पर हार बैठी थी मनुजता।
नाप ली थी विश्व ने, विध्वंस की विकराल क्षमता।।
क्रूरता के कहकहे, मदमस्त होकर सो रहे थे।
खून के आँसू धरा के नेत्र लेकिन रो रहे थे।।
मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,
पढ़ रहा हूँ रेत पर,
खूँ में नहाते लेख, जो बाँचे समय ने।